लेख-निबंध >> छोटे छोटे सुख छोटे छोटे सुखरामदरश मिश्र
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प्रस्तुत है एक संवेदनशील रचनाकार के उन तीव्र मानसिक संवेदनाघातों से उद्भूत हैं जो जीवन और जगत के प्रति गहरी और रचनात्मक संपृक्ति से जन्म लेते हैं....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
छोटे-छोटे सुख में संकलित निबन्ध एक प्रस्तुत है एक संवेदनशील रचनाकार के
उन तीव्र मानसिक संवेदनाघातों से उद्भूत हैं जो जीवन और जगत के प्रति गहरी
और रचनात्मक संपृक्ति से जन्म लेते हैं। मिश्र जी के निबन्धों में व्यक्त
होने वाले संवेदन या चिन्तन का महत्व इस बात में है कि वह उनके निजी
अनुभवों का निचोड़ है। वह उनके व्यक्तित्व की निजता को लेकर प्रकट हुआ है।
हर जगह अपनी रुचि-अरुचि इच्छा-अनिच्छा स्वीकृति-अस्वीकृति के सात लेखक
मौजूद मिल जाएगा। मिश्र जी के ललित निबन्ध अपने समय के साथ जड़े
प्ररूपणों, विषयों और संवेदनाओं की यात्रा करते हैं। वे चाहे किसी विषय पर
लिखे गये हों,अपनी जमीन से जुड़ी हुई सोच और संवेदना के साथ चलते रहते
हैं। गाँव से लेकर शहर तक की इस यात्रा में सामान्य जीवन की छवियाँ और
प्रश्न लेखक को प्रभावित तो करते ही हैं, वहाँ के छोटे-छोटे सुख ही उन्हें
वास्तवित सुख प्रतीत होते हैं। अपने गाँव की
स्मृतियाँ,पर्व-त्योहारों,ऋतुओं और आम जन के जीवन-व्यवहारों के बीच वे
अपने को पाना चाहते हैं। जहाँ कहीं वे विविध प्रसंगों के चित्रण की
प्रक्रिया में राष्ट्र और समाज के अनेक प्रश्नों से गुजरते है तो उनकी
प्रगतिशील दृष्टि सहज रूप में ही सड़े-गले मूल्यों का निषेध करती है और
उनमें नये मनुष्य को प्रस्तावित करने वाले मूल्यों की पक्षधरता दिखाई देती
है। एक वरिष्ठ लेखक के रोचक एवं प्रेरक निबन्धों का एक महत्वपूर्ण संकलन
प्रस्तुत करते हुए ज्ञानपीठ को प्रसन्नता है।
छोटे-छोटे सुख
पढ़ाई और नौकरी की लम्बी यात्रा के बाद जब घर में विश्राम करने का अवसर
मिला तो बड़ी आश्वस्ति प्राप्ति हुई। इस यात्रा में न जाने कितने ऐसे काम
करने पड़े थे जिन्हें मन नहीं चाहता था। जिन्दगी में लगातार विपत्तियाँ
आती-जाती रहें, किसका मन यह चाहेगा ? किसका मन चाहेगा कि अभावों के अथाह
जंगल में उसका बचपन बीते ? वह चले तो यह पता न हो कि अगली राह कौन-सी होगी
और उसे कहाँ जाना है ? कौन चाहेगा कि किसी तरह पगडण्डियों से चलते-चलते वह
शिक्षा की ऊँची सीढ़ी तक पहुँचे तो नौकरी के लिए उसे भटकना पड़े। उसे अपने
ही विश्वविद्यालय में यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ धक्के खाने पड़ें और
धक्के खाते-खाते वह दूर प्रदेश में जा गिरे। वहाँ भी एक स्थान से दूसरे
स्थान तक भटकता फिरे-कभी स्वेच्छा से, कभी विवशता से। और अन्त में वहाँ से
भी निष्कासित होने की नियति झेलनी पड़े और राजधानी में आकर यहाँ के झोंकों
में उठता-गिरता रहे। मेरा मन नहीं चाहता रहा किन्तु यह सब झेलना ही पड़ा
लेकिन यह ऐसे कामों से भी भागता रहा जो उसकी उन्नति के लिए थे। उसे लगता
रहा-रोटी का जोगाड़ हो गया है बहुत है, कौन तरक्की के चक्कर में पड़कर
अपने को लहूलुहान करता रहे। इसलिए वह उन सारे कामों से उदासीन रहा जो
तरक्की के लिए जरूरी होते हैं। वह कहीं भी न कभी किसी प्रिंसिपल से मिलने
को उत्साहित हुआ न रजिस्ट्रार से, न वाइस चांसलर से, न किसी नेता से, न
किसी अफसर से। कुछ शिक्षक और साहित्यकार मित्रों तथा आत्मीय छात्रों की
दुनिया ही उसकी दुनिया बनी रही और उसकी सबसे बड़ी दुनिया थी अपना घर। बाहर
जितनी देर रहना जरूरी होता था उतनी देर रहता था, फिर घर की ओर भाग खड़ा
होता था।
हाँ, यह मेरा मन बड़ा ही अल्पाकांक्षी है। उसे आलसी या कायर भी कह सकते हैं। जो कहना हो कह लीजिए, उसे भागमभाग करने की उत्तेजना नहीं प्राप्त होगी। उसे भागमभाग में शामिल होना ही पड़ा तो हुआ-अर्थात् पढ़ाई के लिए, नौकरी के लिए या किसी के संकट के समय, लेकिन उन्नति के लिए योजनाएँ बना-बनाकर वह यहाँ-वहाँ भागता नहीं फिरा। इस मन की घरघुसरी प्रकृति के बावजूद मुझे काफी कुछ मिला, भले ही देर से मिला, भले ही मात्रा में कम मिला। मिला। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि यह सब कुछ कैसे मिल गया ? हाँ, यह सब इस घरघुसरे मन के बावजूद मिल गया। इसलिए जो मिला वह भीतर गहरा सन्तोष भर गया। बार-बार भीतर बजता रहा कि जो मिला वह कम तो नहीं, वह कम तो नहीं। वह गहरा सन्तोषकारी इसलिए भी लगता रहा कि उसे पाने के लिए वह सब कुछ नहीं करना पड़ा जो अनेक लोगों को करना पड़ता है। जमीर को गिरवी रखे बिना इतना कुछ पा लिया तो कितना कुछ पा लिया। क्षेत्र चाहे निजी जीवन का रहा हो, चाहे सिक्षा का रहा हो, चाहे साहित्य का रहा हो, उसके बेचैन अभावों के प्रसार में उपलब्धियाँ उगती रहीं। चिलचिलाती धूप की व्याप्ति में छौंहें आ-आकर सिर को सहलाती रहीं और धीरे-धीरे यात्रा बढ़ती रही तथा मन के भीतर मानव-छवियों और मूल्यों के प्रति विश्वास भरता रहा।
यह नहीं कि मैं अपने को बड़ा शिक्षा-शास्त्री समझता रहा या बड़ा साहित्यकार मानता रहा। नहीं, मैं बड़ा नहीं हूँ और न बड़ा होने का भ्रम पाला। वह मुझे अच्छा ही नहीं लगता। मैं बड़ा विद्वान नहीं हूँ। देश-विदेश की तमाम चीजें हैं जिन्हें मैं नहीं पढ़ सका हूँ और पढ़ा भी है तो वे मेरी स्मृति में सुरक्षित नहीं रह सकी हैं। मैं सिद्ध वक्ता भी नहीं रहा अतः अकादमिक क्षेत्र में आयोजित व्याख्यानों से बचता रहा। और जो मैं नहीं हो सका या हो सकता था, उसके लिए मन में कोई ललक नहीं थी और न, न हो पाने का दुःख। विश्वविद्याल के प्रभावशाली लोगों के इलाके में घूमने-घामने और सम्पर्क साधने की कतई अभिलाषा नहीं रही। हाँ, जितना जानता था उतना अपने छात्रों को सलीके से देने का उत्साह अवश्य रहा है। देता रहा हूँ और उनसे गहरे जुड़कर ही अपने को विश्वविद्यालय का मानता रहा हूँ और तृप्ति पाता रहा हूँ। लेकिन यहाँ भी किसी से मेरी स्पर्धा नहीं रही है। मुझसे बहुत अच्छे-अच्छे शिक्षक मेरे साथ रहे हैं और उनकी ख्याति में मुझे सुख मिलता रहा है। लेकिन यह सच है कि यह रास्ता पद सम्बन्धी उन्नति की मंजिल की ओर नहीं जाता है। इसलिए मैं उन्नति के बिन्दुओं तक पहुँचा तो सही किन्तु बहुत देर से। कछुवे की तरह।
वैसे देर से पहुँचना मेरी नियति बन गया है। दुनिया में आया तो अपने सारे भाई-बहनों के बाद आया। बस एक बहन जरूर मेरे पीछे-पीछे चली आई। शिक्षा-यात्रा के पथ पर चलने लगा तो आगे के रास्ते दिखाई नहीं पड़ते थे। कहाँ जाना है, किस रास्ते जाना है, कुछ पता नहीं था, बस जिस रास्ते पर चल रहा होता था उसी का ज्ञान होता था। जब कुछ दूर चलने के बाद वह रास्ता समाप्त हो जाता था तब खड़ा होकर सोचना पड़ता था कि आगे जाना है कि नहीं और जाना है तो किस रास्ते से। और इस तरह चलते हुए मैंने 28 साल में एम.ए. पास किया और 32 वर्ष में पहली नौकरी लगी। लेकिन यह भी कम तो नहीं। मेरे साथ चलनेवाले गाँव के अनेक बच्चे तो पता नहीं कहाँ रुक गये, या किधर को हो लिये। अड़तालीसवें वर्ष में रीडर हुआ और साठवें वर्ष में प्रोफेसर। लेकिन मेरे मन को कभी शिकायत ही नहीं हुई यहाँ-वहाँ देर से पहुँचने की। और नियति ने जो किया उसमें मन कर भी क्या सकता था ?
साहित्य की यात्रा भी इससे अलग नहीं रही। सहज भाव से सम्पर्क में आये लोगों से मिलना-जुलना अच्छा लगता है किन्तु लाभ के उद्देश्य से योजना बना-बनाकर साहित्य स्वामी साहित्यकारों से मिलने और मिलते रहने की कभी इच्छा ही नहीं हुई। इसलिए उनका आशीष नहीं मिल सका, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। बनारस में था, तो नया लिखनेवाले तमाम मित्रों के बीच था किन्तु अकेला। कोई मेरा सरपरस्त नहीं था। हाँ, मित्रों के बीच चलता हुआ बहुत कुछ सीख रहा था। 51-52 के आसपास मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुआ लेकिन न तो मार्क्सवादी नेताओं के बीच उठना-बैठना हुआ, न उनसे जुड़े साहित्यकारों से लामबन्द होने की कोशिश की। बस अपने लिए मार्क्सवाद की थोड़ी समझ प्राप्त की और उसके आलोक में जीवन को समझता हुआ वस्तु-विन्यास करता रहा।
हाँ, तो यह मेरा अपना सुख है कि मैं तमाम साहित्य-गुरुओं और उनकी कीर्तन-मण्डली में अपने को शामिल नहीं कर सका। उनके बाहर भी साहित्य की एक बड़ी दुनिया है जिसके बीच होने में मुझे सुख मिलता है और जो मुझे सहज प्यार देती रहती है। जितना लिखा है अपने सुख से लिखा है और जो लिखा है वह सार्थक लिखा है। यह लेखन मुझे मेरे होने का अर्थ देता रहा है, संकट में शक्ति देता रहा है और यह विश्वास पैदा करता रहा है कि मुझे जैसे घरघुसरे आदमी को भी यह दूर-दूर तक फैला रहा है-बाहर भी, भीतर भी। इससे एक अहसास हमेशा मन में भरा होता है कि कोई भी तुम्हारा हो या न हो, ये रचनाएँ तो तुम्हारी हैं। कोई भी साथ हो, न हो ये रचनाएँ तो साथ हैं। और इनमें तुमने जो दुनिया रची है, वह तो तुम्हारे साथ है- विविध रंगों में, विविध रूपों में, विविध सुखात्मक-दुखात्मक अनुभवों में। सच पूछिए तो मेरे लेखन ने मुझे कुछ होने की अनुभूति दी है। दुनियावी दृष्टि से मैं एकदम निकम्मा आदमी हूँ। घर-परिवार से लेकर ज्ञान-विज्ञान की दुनिया तक मैं बहुत सारी कुशलताओं से वंचित हूँ, बहुत सारी ज्ञातव्य बातों से अनभिज्ञ हूँ। मुझे लेखन की शक्ति न मिली होती तो दुनिया तो मुझे नाचीज समझती ही, स्वयं मैं भी अपने को एक व्यर्थ का प्राणी समझता। घर में किसी काम का नहीं रहा। गाँव पर माँ-बाप और बड़े भाइयों ने घर का दायित्व सँभाले रखा और दाम्पत्य जीवन में पत्नी ने घर-बाहर की तमाम जिम्मेवारियों को अपने कर्मठ और कुशल हाथों में ले लिया। मैं पढ़ता रहा। लेखन करता रहा। और लेखन घर-बाहर सर्वत्र मुझे एक योग्य प्राणी सिद्ध करता रहा। पत्नी के मन में भी कभी नहीं आया कि वह एक व्यर्थ के प्राणी के साथ जोड़ दी गयी है, बल्कि उसे गर्व होता रहा कि वह एक लेखक की पत्नी है। बाहरी जगत की तमाम गतिविधियों के बीच में अकुशल दिखाई पड़ता रहा किन्तु लोगों ने कभी मुझे उपहास की दृष्टि से नहीं देखा बल्कि वे सोचते रहे कि ये लेखक हैं यह बड़ी बात है, बाहरी जगत के ये सब काम इनके लिए नहीं, हमारे लिए हैं। अतः मैं अपने लेखन का आभारी हूँ कि उसने मुझे कुछ करते रहने की तृप्ति समाज की दृष्टि में एक सार्थकता प्रदान की है। लेखकों और आलोचकों की दृष्टि में वह क्या है, कुछ है कि नहीं है, इसकी चिन्ता वे करें।
हाँ, मैं बड़े सुख की कामना में अपने को लहूलुहान नहीं करता। छोटे-छोटे सुखों का अपना उजास होता है। मैं छोटा आदमी हूँ और छोटा बना रहना चाहता हूँ, इसलिए बड़े सुख की न कल्पना करता हूँ, न कामना। वैसे बड़ा सुख है क्या ? कोई बड़ा पद, बड़ी सम्पत्ति, बड़ा पुरस्कार, बड़ा नाम, बड़ा यश ? यानी शिखर से शिखर तक की कूद। इन बड़े सुखों की प्राप्ति के लिए आदमी न जाने कितना कुछ खो देता है। ये सुख रोज-रोज तो नहीं मिलते, किन्तु कभी-कभी मिल जानेवाले इन सुखों के लिए आदमी रोज-रोज मिलनेवाले घर-परिवेश के न जाने कितने-कितने छोटे-छोटे, प्यारे-प्यारे सुखों को खो देता है और खो देता है अपने व्यक्तित्व का भीतरी निजी तेज। वह तो न जाने कितने-कितने समीकरणों में अपने को उलझा देता है, कितने-कितने खण्डों में अपने को बाँट लेता है। उसकी हँसी, उसके आँसू, उसके स्वर सभी बँट जाते हैं और अपने नहीं रह पाते। वे भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न रंग दिखाते हैं। वह सामान्य लोगों के बीच दर्प से तना रहकर महानों के आगे पिघलकर बह जाता है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि एकान्त में किसी महान के चरणों पर लोटकर जब वह बाहर निकलता है तब अपने इनकलाबी लोगों के बीच अपना बड़प्पन सिद्ध करने के लिए उसे उस महान के विरुद्ध बोलना पड़ता है। निरन्तर चलती हुई उसकी यह सोच और कार्य-प्रक्रिया उसे न जाने कितने-कितने झूठ में बाँटती रहती है। वह शायद स्वयं नहीं सोच पाता कि वह बड़ा किसके लिए है ? अपने परिवार के लिए ? नहीं, उसके बच्चे उसके साथ नहीं रह सकते और पत्नी तो निरन्तर उसके निष्करुण बड़प्पन के बोझ के नीचे पिसती रहती है। पास-पड़ोस में बड़प्पन का प्रभा-मण्डल फैला होता है, जो लोगों को आतंकित करता है और मिलने-जुलने से रोकता है। बाहर से आनेवाले आदमी मिलने से पहले दस बार सोचते हैं कि बड़ा आदमी कोई बड़ा काम कर रहा होगा, उसके पास मिलने का समय होगा कि नहीं और मिलेगा भी तो पता नहीं एहसान के भाव से मिलेगा या आत्मीय भाव से।
मुझे भय लगता है ऐसे बड़प्पन की प्राप्ति की कल्पना से। बड़ा आदमी बनने का मतलब है कि मेरा सारा निजी सुख, खाँसना-खँखारना, उठना-बैठना मीडिया के ज़रिए लोगों में समाचार बनकर भनभनाता रहेगा। किसी अभीप्सित कार्यक्रम में जा नहीं सकूँगा यदि मुझे विशिष्ट रूप में नहीं बुलाया गया है। श्रोता के रूप में कुछ विलम्ब से जाकर भी मैं पीछे की किसी खाली कुर्सी पर बैठ नहीं सकता, अगली कतार की कुर्सियाँ पहले से भरी होंगी। मैं वहाँ कुछ पल खड़ा होकर निहारूँगा, फिर कोई श्रोता मेरे लिए सीट छोड़कर पीछे चला जाएगा और मैं परम बेहयाई से उसकी सीट से बैठ जाऊँगा। कार्यक्रम के पीछे आयोजित चाय-पान के समय या तो मैं हूँगा नहीं या हूँगा तो तना हुआ एक किनारे खड़ा रहूँगा। कोई लपककर जाएगा और मेरे लिए चाय-बिस्कुट ले आएगा। लोग मुझे घेरकर खड़े हो जाएँगे। और मैं उनसे बोलते-बतियाते रहने की कृपा करूँगा। किसी से हँसकर बोलूँगा, किसी से मुँह फुलाकर, किसी से बोलूँगा ही नहीं। किसी जान-पहचान के आदमी के बच्चे की पीठ ठोंक दूँगा और हँस-हँसकर उससे उसका नाम पूछूँगा। और जब मैं वहाँ से चला जाऊँगा तब लोग राहत की साँस लेंगे कि गया यह बड़ा आदमी। और फिर तरह-तरह से टिप्पणियाँ जड़ेंगे।
नहीं, ऐसा आदमी बनने की कल्पना से मुझे डर लगता है। मुझे अच्छा लगता है, कि मेरे निजी सुख-दुःख की बात मेरे पास ही चक्कर काटती है, वह समाचार नहीं बनती। मेरी गलतियाँ और उपलब्धियाँ मेरे और मेरे आत्मीयों के बीच होती हैं वे अखबारों के सिर पर चढ़कर यहाँ-वहाँ नाचतीं नहीं। मुझे अच्छा लगता है उनके साथ होना जो मुझसे मिलने आते हैं। मैं सामान्य आदमी हूँ, मुझे अच्छा लगता है लोगों के बीच एक सामान्य आदमी की तरह खो जाना और अनदेखा रहना। मुझे अच्छा लगता है किसी कार्यक्रम में जाकर चुपचाप आगे-पीछे की किसी खाली सीट पर अपने को डाल देना और चाय-पान के समय लोगों के बीच जा-जाकर बोलना-बतियाना। मुझे अच्छा लगता है किसी मामूली-सी चाय की दुकान के आगे पड़े बेंच पर या सामने फैली हुई दूब पर किसी के भी साथ बैठकर चाय पीना, किसी भी साफ-सुथरे ढाबे में कुछ खा लेना। यह सब मेरा सुख है जिसे सँजोकर रखना चाहता हूँ।
मेरे लिए आयोजित एक कार्यक्रम में एक मित्र ने सहज या व्यंग्य भाव से एक टिप्पणी उछाल दी थी कि ‘न जाने क्या बात है रामदरश मिश्र अवस्था में अपने से छोटे लोगों से ही मित्रता रखते हैं, बड़े लोगों से बचते हैं ? मैं उस समय चुप ही रहा क्योंकि मैंने पहले कभी इस तरह सोचा नहीं था किन्तु मित्र की बात सुनकर बाद में सोचने लगा कि ऐसा है क्या ? जब मैंने अपने मित्रों पर दृष्टिपात किया तो सच्चाई का अनुभव हुआ। यह सच है कि मेरे मित्र प्रायः मुझसे वय में छोटे ही हैं किन्तु मिलना-जुलना तो बड़ी वय के लोगों से भी होता रहा—उनसे, जिनसे मिलना अच्छा लगता रहा। मैं अच्छा लगने के लिए ही लोगों से मिलता रहा किसी योजना के तहत या स्वार्थवश नहीं। मेरे समकालीनों यानी मेरी वय के कुछ आगे-पीछे के लोगों में से कई लोग ऐसे हैं या रहे हैं जिनसे मिलने में सहजता की अनुभूति नहीं होती रही, कहीं न कहीं, किसी न किसी प्रकार की ऐंठ उनमें दिखाई पड़ती रही। वे सहज दोस्ती के तहत कम, साहित्यिक या अन्य प्रकार के समीकरणों के तहत अधिक मिलते जुलते हैं। उनकी अपनी मण्डली है, अपने ढाँचे हैं। इनमें से कइयों के साथ मेरी प्रारम्भिक साहित्यिक और शैक्षिक यात्रा भी हुई है। किन्तु दिल्ली में आकर उनसे दूरियाँ बढ़ती गयीं। वे प्रारम्भिक मैत्री के खुले उजास को भूलते गये और दिल्ली की पेंचीदगी उनके चरित्र में समाती गयी और वे देखने लगे कि कहाँ किससे जुड़ना अधिक लाभप्रद होगा और किससे न मिलने पर भी कुछ बिगड़ेगा नहीं। बड़े लोगों से मिलने पर यदि प्रसन्नता की अनुभूति न हो तो उनसे क्यों मिला जाए ? मैं उनसे अपनी शर्तों पर तो मिल नहीं सकता। तो यही हो सकता है कि उनसे मिला ही न जाए। अपने से छोटी वय के लोगों से अधिक मिलना इसलिए हो पाता है कि मैं उनसे अपनी शर्तों पर मिल सकता हूँ। मैं अपने से मिलनेवाले लोगों से अधिक सहज बना रहना चाहता हूँ। चाहता हूँ कि मैं जो प्यार औरों से चाहता हूँ वह अपने से जुड़े लोगों को भी दूँ। बड़े लोगों को तो मैं सहज नहीं बना सकता, किन्तु छोटे लोगों के साथ मैं स्वयं सहज तो बना रह सकता हूँ और उनमें से जिन्हें अपने से जुड़े रहने के योग्य समझता हूँ, उनसे जुड़ा रह सकता हूँ। उनसे मिलते-जुलते रहने का उद्देश्य होता है एक-दूसरे को प्रसन्नता बाँटना अपने वश में हो तो कोई छोटा-मोटा काम कर देना, पारिवारिक सुख-दुःख पर बातें करना, मिल-जुलकर साहित्य के क्षेत्र में क्या कुछ किया जा सकता है-(किसी को उजाड़ने के लिए नहीं वरन सबको साथ रखने के लिए) इस पर विमर्श करना। यह सच है कि इस बड़ी दुनिया में हर आदमी की एक छोटी-सी दुनिया होती है—मेरी भी है किन्तु यह दुनिया मिल जुलकर जीने के लिए है। उसके पास किसी राजनीतिक या साहित्यिक प्रतिष्ठान से प्राप्त वह शक्ति नहीं है जो साहित्य में लोगों को स्थापित या विस्थापित करती है, जो बड़े-बड़े पुरस्कारों का वारा-न्यारा करती है, जो मनचाहे लोगों की रचनाओं के संकलन तैयार करती है, जो बड़ी बड़ी पत्रिकाएँ निकालती है, जो रचनाकारों को अन्तरराष्ट्रीय जगत में प्रक्षिप्त करती है और जो अपने अनचाहे लोगों के प्रति या तो चुप्पी साध लेती है या तरह-तरह से उन्हें लांछित करती है। मेरी इस दुनिया से मुझे जो सुख मिलते हैं वे बड़े छोटे-छोटे होते हैं किन्तु भरे-भरे, उजले-उजले, जो मेरी प्रकृति को रास आते हैं।
छोटा ही सही, किन्तु सबसे बड़ा सुख यह होता है कि जीवन अपने मन से जिया जाए- चाहे वह साहित्यिक जीवन हो, चाहे सामाजिक या पारिवारिक जीवन। हमारा विवेक ही हमारे निर्णयों और क्रिया-व्यापारों का नियन्ता हो और हमारी जवाबदेही उसी के प्रति हो। मेरा लेखक किसी दल से नहीं जुड़ा है और न उसे किसी सत्ता-संस्थान से या प्रभावशाली माने जानेवाले लेखक आलोचक से कुछ पाना है। उसे दल को अपने क्रिया व्यापारों और निर्णयों के लिए जवाब नहीं देना है जैसा कि दल से जुड़े तमाम लोगों को देना होता है। दल से जुड़े लोगों को डर लगा रहता है कि केन्द्रीय सत्ता रुष्ट हो गयी तो उन्हें प्राप्त या प्राप्त होनेवाली तरह-तरह की सुविधाओं का क्या होगा ? इसलिए स्पष्टीकरण माँगे जाने पर वे डर से मिमियाते हुए जवाब देते हैं—यानी उन्हें मिलनेवाला सुख निरन्तर आतंक की छाया में जीता है किन्तु मुक्त लोगों को किसी दल को जवाब नहीं देना होता। ये लोग अपने विवेक को जवाब देते हैं। दल का कोई व्यक्ति यदि कभी जवाब माँग ही लेता है तो उन्हें उत्तर मिलता है-‘‘तुम कौन होते हो पूछनेवाले ?’’ इसलिए दल के लोग इनसे पूछते नहीं हैं। हाँ, वे समय-समय पर अपने ही लोगों को कटघरे में खड़ा किया करते हैं और मिल-जुलकर सारी सुविधाओं और सुखों पर कुण्डली मारे रहते हैं। ऐसे सुख को लेकर क्या करना है ? लेकिन सुखों की कमी तो नहीं। दुनिया बड़ी है और यहाँ-वहाँ से छनकर हमारे पास भी सुख आया करते हैं—आते हैं तो हम सहज रूप से स्वीकार कर लेते हैं, नहीं आते हैं तो उनके न आने की कोई अनुभूति परेशान नहीं करती। अपने मन से जीते हुए, बिना डर और प्रलोभन के सहज ढंग से अपना रचना कर्म करते हुए जितना पा जाते हैं, वह बहुत लगता है, वह अपना लगता है।
हाँ, यह मेरा मन बड़ा ही अल्पाकांक्षी है। उसे आलसी या कायर भी कह सकते हैं। जो कहना हो कह लीजिए, उसे भागमभाग करने की उत्तेजना नहीं प्राप्त होगी। उसे भागमभाग में शामिल होना ही पड़ा तो हुआ-अर्थात् पढ़ाई के लिए, नौकरी के लिए या किसी के संकट के समय, लेकिन उन्नति के लिए योजनाएँ बना-बनाकर वह यहाँ-वहाँ भागता नहीं फिरा। इस मन की घरघुसरी प्रकृति के बावजूद मुझे काफी कुछ मिला, भले ही देर से मिला, भले ही मात्रा में कम मिला। मिला। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि यह सब कुछ कैसे मिल गया ? हाँ, यह सब इस घरघुसरे मन के बावजूद मिल गया। इसलिए जो मिला वह भीतर गहरा सन्तोष भर गया। बार-बार भीतर बजता रहा कि जो मिला वह कम तो नहीं, वह कम तो नहीं। वह गहरा सन्तोषकारी इसलिए भी लगता रहा कि उसे पाने के लिए वह सब कुछ नहीं करना पड़ा जो अनेक लोगों को करना पड़ता है। जमीर को गिरवी रखे बिना इतना कुछ पा लिया तो कितना कुछ पा लिया। क्षेत्र चाहे निजी जीवन का रहा हो, चाहे सिक्षा का रहा हो, चाहे साहित्य का रहा हो, उसके बेचैन अभावों के प्रसार में उपलब्धियाँ उगती रहीं। चिलचिलाती धूप की व्याप्ति में छौंहें आ-आकर सिर को सहलाती रहीं और धीरे-धीरे यात्रा बढ़ती रही तथा मन के भीतर मानव-छवियों और मूल्यों के प्रति विश्वास भरता रहा।
यह नहीं कि मैं अपने को बड़ा शिक्षा-शास्त्री समझता रहा या बड़ा साहित्यकार मानता रहा। नहीं, मैं बड़ा नहीं हूँ और न बड़ा होने का भ्रम पाला। वह मुझे अच्छा ही नहीं लगता। मैं बड़ा विद्वान नहीं हूँ। देश-विदेश की तमाम चीजें हैं जिन्हें मैं नहीं पढ़ सका हूँ और पढ़ा भी है तो वे मेरी स्मृति में सुरक्षित नहीं रह सकी हैं। मैं सिद्ध वक्ता भी नहीं रहा अतः अकादमिक क्षेत्र में आयोजित व्याख्यानों से बचता रहा। और जो मैं नहीं हो सका या हो सकता था, उसके लिए मन में कोई ललक नहीं थी और न, न हो पाने का दुःख। विश्वविद्याल के प्रभावशाली लोगों के इलाके में घूमने-घामने और सम्पर्क साधने की कतई अभिलाषा नहीं रही। हाँ, जितना जानता था उतना अपने छात्रों को सलीके से देने का उत्साह अवश्य रहा है। देता रहा हूँ और उनसे गहरे जुड़कर ही अपने को विश्वविद्यालय का मानता रहा हूँ और तृप्ति पाता रहा हूँ। लेकिन यहाँ भी किसी से मेरी स्पर्धा नहीं रही है। मुझसे बहुत अच्छे-अच्छे शिक्षक मेरे साथ रहे हैं और उनकी ख्याति में मुझे सुख मिलता रहा है। लेकिन यह सच है कि यह रास्ता पद सम्बन्धी उन्नति की मंजिल की ओर नहीं जाता है। इसलिए मैं उन्नति के बिन्दुओं तक पहुँचा तो सही किन्तु बहुत देर से। कछुवे की तरह।
वैसे देर से पहुँचना मेरी नियति बन गया है। दुनिया में आया तो अपने सारे भाई-बहनों के बाद आया। बस एक बहन जरूर मेरे पीछे-पीछे चली आई। शिक्षा-यात्रा के पथ पर चलने लगा तो आगे के रास्ते दिखाई नहीं पड़ते थे। कहाँ जाना है, किस रास्ते जाना है, कुछ पता नहीं था, बस जिस रास्ते पर चल रहा होता था उसी का ज्ञान होता था। जब कुछ दूर चलने के बाद वह रास्ता समाप्त हो जाता था तब खड़ा होकर सोचना पड़ता था कि आगे जाना है कि नहीं और जाना है तो किस रास्ते से। और इस तरह चलते हुए मैंने 28 साल में एम.ए. पास किया और 32 वर्ष में पहली नौकरी लगी। लेकिन यह भी कम तो नहीं। मेरे साथ चलनेवाले गाँव के अनेक बच्चे तो पता नहीं कहाँ रुक गये, या किधर को हो लिये। अड़तालीसवें वर्ष में रीडर हुआ और साठवें वर्ष में प्रोफेसर। लेकिन मेरे मन को कभी शिकायत ही नहीं हुई यहाँ-वहाँ देर से पहुँचने की। और नियति ने जो किया उसमें मन कर भी क्या सकता था ?
साहित्य की यात्रा भी इससे अलग नहीं रही। सहज भाव से सम्पर्क में आये लोगों से मिलना-जुलना अच्छा लगता है किन्तु लाभ के उद्देश्य से योजना बना-बनाकर साहित्य स्वामी साहित्यकारों से मिलने और मिलते रहने की कभी इच्छा ही नहीं हुई। इसलिए उनका आशीष नहीं मिल सका, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। बनारस में था, तो नया लिखनेवाले तमाम मित्रों के बीच था किन्तु अकेला। कोई मेरा सरपरस्त नहीं था। हाँ, मित्रों के बीच चलता हुआ बहुत कुछ सीख रहा था। 51-52 के आसपास मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुआ लेकिन न तो मार्क्सवादी नेताओं के बीच उठना-बैठना हुआ, न उनसे जुड़े साहित्यकारों से लामबन्द होने की कोशिश की। बस अपने लिए मार्क्सवाद की थोड़ी समझ प्राप्त की और उसके आलोक में जीवन को समझता हुआ वस्तु-विन्यास करता रहा।
हाँ, तो यह मेरा अपना सुख है कि मैं तमाम साहित्य-गुरुओं और उनकी कीर्तन-मण्डली में अपने को शामिल नहीं कर सका। उनके बाहर भी साहित्य की एक बड़ी दुनिया है जिसके बीच होने में मुझे सुख मिलता है और जो मुझे सहज प्यार देती रहती है। जितना लिखा है अपने सुख से लिखा है और जो लिखा है वह सार्थक लिखा है। यह लेखन मुझे मेरे होने का अर्थ देता रहा है, संकट में शक्ति देता रहा है और यह विश्वास पैदा करता रहा है कि मुझे जैसे घरघुसरे आदमी को भी यह दूर-दूर तक फैला रहा है-बाहर भी, भीतर भी। इससे एक अहसास हमेशा मन में भरा होता है कि कोई भी तुम्हारा हो या न हो, ये रचनाएँ तो तुम्हारी हैं। कोई भी साथ हो, न हो ये रचनाएँ तो साथ हैं। और इनमें तुमने जो दुनिया रची है, वह तो तुम्हारे साथ है- विविध रंगों में, विविध रूपों में, विविध सुखात्मक-दुखात्मक अनुभवों में। सच पूछिए तो मेरे लेखन ने मुझे कुछ होने की अनुभूति दी है। दुनियावी दृष्टि से मैं एकदम निकम्मा आदमी हूँ। घर-परिवार से लेकर ज्ञान-विज्ञान की दुनिया तक मैं बहुत सारी कुशलताओं से वंचित हूँ, बहुत सारी ज्ञातव्य बातों से अनभिज्ञ हूँ। मुझे लेखन की शक्ति न मिली होती तो दुनिया तो मुझे नाचीज समझती ही, स्वयं मैं भी अपने को एक व्यर्थ का प्राणी समझता। घर में किसी काम का नहीं रहा। गाँव पर माँ-बाप और बड़े भाइयों ने घर का दायित्व सँभाले रखा और दाम्पत्य जीवन में पत्नी ने घर-बाहर की तमाम जिम्मेवारियों को अपने कर्मठ और कुशल हाथों में ले लिया। मैं पढ़ता रहा। लेखन करता रहा। और लेखन घर-बाहर सर्वत्र मुझे एक योग्य प्राणी सिद्ध करता रहा। पत्नी के मन में भी कभी नहीं आया कि वह एक व्यर्थ के प्राणी के साथ जोड़ दी गयी है, बल्कि उसे गर्व होता रहा कि वह एक लेखक की पत्नी है। बाहरी जगत की तमाम गतिविधियों के बीच में अकुशल दिखाई पड़ता रहा किन्तु लोगों ने कभी मुझे उपहास की दृष्टि से नहीं देखा बल्कि वे सोचते रहे कि ये लेखक हैं यह बड़ी बात है, बाहरी जगत के ये सब काम इनके लिए नहीं, हमारे लिए हैं। अतः मैं अपने लेखन का आभारी हूँ कि उसने मुझे कुछ करते रहने की तृप्ति समाज की दृष्टि में एक सार्थकता प्रदान की है। लेखकों और आलोचकों की दृष्टि में वह क्या है, कुछ है कि नहीं है, इसकी चिन्ता वे करें।
हाँ, मैं बड़े सुख की कामना में अपने को लहूलुहान नहीं करता। छोटे-छोटे सुखों का अपना उजास होता है। मैं छोटा आदमी हूँ और छोटा बना रहना चाहता हूँ, इसलिए बड़े सुख की न कल्पना करता हूँ, न कामना। वैसे बड़ा सुख है क्या ? कोई बड़ा पद, बड़ी सम्पत्ति, बड़ा पुरस्कार, बड़ा नाम, बड़ा यश ? यानी शिखर से शिखर तक की कूद। इन बड़े सुखों की प्राप्ति के लिए आदमी न जाने कितना कुछ खो देता है। ये सुख रोज-रोज तो नहीं मिलते, किन्तु कभी-कभी मिल जानेवाले इन सुखों के लिए आदमी रोज-रोज मिलनेवाले घर-परिवेश के न जाने कितने-कितने छोटे-छोटे, प्यारे-प्यारे सुखों को खो देता है और खो देता है अपने व्यक्तित्व का भीतरी निजी तेज। वह तो न जाने कितने-कितने समीकरणों में अपने को उलझा देता है, कितने-कितने खण्डों में अपने को बाँट लेता है। उसकी हँसी, उसके आँसू, उसके स्वर सभी बँट जाते हैं और अपने नहीं रह पाते। वे भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न रंग दिखाते हैं। वह सामान्य लोगों के बीच दर्प से तना रहकर महानों के आगे पिघलकर बह जाता है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि एकान्त में किसी महान के चरणों पर लोटकर जब वह बाहर निकलता है तब अपने इनकलाबी लोगों के बीच अपना बड़प्पन सिद्ध करने के लिए उसे उस महान के विरुद्ध बोलना पड़ता है। निरन्तर चलती हुई उसकी यह सोच और कार्य-प्रक्रिया उसे न जाने कितने-कितने झूठ में बाँटती रहती है। वह शायद स्वयं नहीं सोच पाता कि वह बड़ा किसके लिए है ? अपने परिवार के लिए ? नहीं, उसके बच्चे उसके साथ नहीं रह सकते और पत्नी तो निरन्तर उसके निष्करुण बड़प्पन के बोझ के नीचे पिसती रहती है। पास-पड़ोस में बड़प्पन का प्रभा-मण्डल फैला होता है, जो लोगों को आतंकित करता है और मिलने-जुलने से रोकता है। बाहर से आनेवाले आदमी मिलने से पहले दस बार सोचते हैं कि बड़ा आदमी कोई बड़ा काम कर रहा होगा, उसके पास मिलने का समय होगा कि नहीं और मिलेगा भी तो पता नहीं एहसान के भाव से मिलेगा या आत्मीय भाव से।
मुझे भय लगता है ऐसे बड़प्पन की प्राप्ति की कल्पना से। बड़ा आदमी बनने का मतलब है कि मेरा सारा निजी सुख, खाँसना-खँखारना, उठना-बैठना मीडिया के ज़रिए लोगों में समाचार बनकर भनभनाता रहेगा। किसी अभीप्सित कार्यक्रम में जा नहीं सकूँगा यदि मुझे विशिष्ट रूप में नहीं बुलाया गया है। श्रोता के रूप में कुछ विलम्ब से जाकर भी मैं पीछे की किसी खाली कुर्सी पर बैठ नहीं सकता, अगली कतार की कुर्सियाँ पहले से भरी होंगी। मैं वहाँ कुछ पल खड़ा होकर निहारूँगा, फिर कोई श्रोता मेरे लिए सीट छोड़कर पीछे चला जाएगा और मैं परम बेहयाई से उसकी सीट से बैठ जाऊँगा। कार्यक्रम के पीछे आयोजित चाय-पान के समय या तो मैं हूँगा नहीं या हूँगा तो तना हुआ एक किनारे खड़ा रहूँगा। कोई लपककर जाएगा और मेरे लिए चाय-बिस्कुट ले आएगा। लोग मुझे घेरकर खड़े हो जाएँगे। और मैं उनसे बोलते-बतियाते रहने की कृपा करूँगा। किसी से हँसकर बोलूँगा, किसी से मुँह फुलाकर, किसी से बोलूँगा ही नहीं। किसी जान-पहचान के आदमी के बच्चे की पीठ ठोंक दूँगा और हँस-हँसकर उससे उसका नाम पूछूँगा। और जब मैं वहाँ से चला जाऊँगा तब लोग राहत की साँस लेंगे कि गया यह बड़ा आदमी। और फिर तरह-तरह से टिप्पणियाँ जड़ेंगे।
नहीं, ऐसा आदमी बनने की कल्पना से मुझे डर लगता है। मुझे अच्छा लगता है, कि मेरे निजी सुख-दुःख की बात मेरे पास ही चक्कर काटती है, वह समाचार नहीं बनती। मेरी गलतियाँ और उपलब्धियाँ मेरे और मेरे आत्मीयों के बीच होती हैं वे अखबारों के सिर पर चढ़कर यहाँ-वहाँ नाचतीं नहीं। मुझे अच्छा लगता है उनके साथ होना जो मुझसे मिलने आते हैं। मैं सामान्य आदमी हूँ, मुझे अच्छा लगता है लोगों के बीच एक सामान्य आदमी की तरह खो जाना और अनदेखा रहना। मुझे अच्छा लगता है किसी कार्यक्रम में जाकर चुपचाप आगे-पीछे की किसी खाली सीट पर अपने को डाल देना और चाय-पान के समय लोगों के बीच जा-जाकर बोलना-बतियाना। मुझे अच्छा लगता है किसी मामूली-सी चाय की दुकान के आगे पड़े बेंच पर या सामने फैली हुई दूब पर किसी के भी साथ बैठकर चाय पीना, किसी भी साफ-सुथरे ढाबे में कुछ खा लेना। यह सब मेरा सुख है जिसे सँजोकर रखना चाहता हूँ।
मेरे लिए आयोजित एक कार्यक्रम में एक मित्र ने सहज या व्यंग्य भाव से एक टिप्पणी उछाल दी थी कि ‘न जाने क्या बात है रामदरश मिश्र अवस्था में अपने से छोटे लोगों से ही मित्रता रखते हैं, बड़े लोगों से बचते हैं ? मैं उस समय चुप ही रहा क्योंकि मैंने पहले कभी इस तरह सोचा नहीं था किन्तु मित्र की बात सुनकर बाद में सोचने लगा कि ऐसा है क्या ? जब मैंने अपने मित्रों पर दृष्टिपात किया तो सच्चाई का अनुभव हुआ। यह सच है कि मेरे मित्र प्रायः मुझसे वय में छोटे ही हैं किन्तु मिलना-जुलना तो बड़ी वय के लोगों से भी होता रहा—उनसे, जिनसे मिलना अच्छा लगता रहा। मैं अच्छा लगने के लिए ही लोगों से मिलता रहा किसी योजना के तहत या स्वार्थवश नहीं। मेरे समकालीनों यानी मेरी वय के कुछ आगे-पीछे के लोगों में से कई लोग ऐसे हैं या रहे हैं जिनसे मिलने में सहजता की अनुभूति नहीं होती रही, कहीं न कहीं, किसी न किसी प्रकार की ऐंठ उनमें दिखाई पड़ती रही। वे सहज दोस्ती के तहत कम, साहित्यिक या अन्य प्रकार के समीकरणों के तहत अधिक मिलते जुलते हैं। उनकी अपनी मण्डली है, अपने ढाँचे हैं। इनमें से कइयों के साथ मेरी प्रारम्भिक साहित्यिक और शैक्षिक यात्रा भी हुई है। किन्तु दिल्ली में आकर उनसे दूरियाँ बढ़ती गयीं। वे प्रारम्भिक मैत्री के खुले उजास को भूलते गये और दिल्ली की पेंचीदगी उनके चरित्र में समाती गयी और वे देखने लगे कि कहाँ किससे जुड़ना अधिक लाभप्रद होगा और किससे न मिलने पर भी कुछ बिगड़ेगा नहीं। बड़े लोगों से मिलने पर यदि प्रसन्नता की अनुभूति न हो तो उनसे क्यों मिला जाए ? मैं उनसे अपनी शर्तों पर तो मिल नहीं सकता। तो यही हो सकता है कि उनसे मिला ही न जाए। अपने से छोटी वय के लोगों से अधिक मिलना इसलिए हो पाता है कि मैं उनसे अपनी शर्तों पर मिल सकता हूँ। मैं अपने से मिलनेवाले लोगों से अधिक सहज बना रहना चाहता हूँ। चाहता हूँ कि मैं जो प्यार औरों से चाहता हूँ वह अपने से जुड़े लोगों को भी दूँ। बड़े लोगों को तो मैं सहज नहीं बना सकता, किन्तु छोटे लोगों के साथ मैं स्वयं सहज तो बना रह सकता हूँ और उनमें से जिन्हें अपने से जुड़े रहने के योग्य समझता हूँ, उनसे जुड़ा रह सकता हूँ। उनसे मिलते-जुलते रहने का उद्देश्य होता है एक-दूसरे को प्रसन्नता बाँटना अपने वश में हो तो कोई छोटा-मोटा काम कर देना, पारिवारिक सुख-दुःख पर बातें करना, मिल-जुलकर साहित्य के क्षेत्र में क्या कुछ किया जा सकता है-(किसी को उजाड़ने के लिए नहीं वरन सबको साथ रखने के लिए) इस पर विमर्श करना। यह सच है कि इस बड़ी दुनिया में हर आदमी की एक छोटी-सी दुनिया होती है—मेरी भी है किन्तु यह दुनिया मिल जुलकर जीने के लिए है। उसके पास किसी राजनीतिक या साहित्यिक प्रतिष्ठान से प्राप्त वह शक्ति नहीं है जो साहित्य में लोगों को स्थापित या विस्थापित करती है, जो बड़े-बड़े पुरस्कारों का वारा-न्यारा करती है, जो मनचाहे लोगों की रचनाओं के संकलन तैयार करती है, जो बड़ी बड़ी पत्रिकाएँ निकालती है, जो रचनाकारों को अन्तरराष्ट्रीय जगत में प्रक्षिप्त करती है और जो अपने अनचाहे लोगों के प्रति या तो चुप्पी साध लेती है या तरह-तरह से उन्हें लांछित करती है। मेरी इस दुनिया से मुझे जो सुख मिलते हैं वे बड़े छोटे-छोटे होते हैं किन्तु भरे-भरे, उजले-उजले, जो मेरी प्रकृति को रास आते हैं।
छोटा ही सही, किन्तु सबसे बड़ा सुख यह होता है कि जीवन अपने मन से जिया जाए- चाहे वह साहित्यिक जीवन हो, चाहे सामाजिक या पारिवारिक जीवन। हमारा विवेक ही हमारे निर्णयों और क्रिया-व्यापारों का नियन्ता हो और हमारी जवाबदेही उसी के प्रति हो। मेरा लेखक किसी दल से नहीं जुड़ा है और न उसे किसी सत्ता-संस्थान से या प्रभावशाली माने जानेवाले लेखक आलोचक से कुछ पाना है। उसे दल को अपने क्रिया व्यापारों और निर्णयों के लिए जवाब नहीं देना है जैसा कि दल से जुड़े तमाम लोगों को देना होता है। दल से जुड़े लोगों को डर लगा रहता है कि केन्द्रीय सत्ता रुष्ट हो गयी तो उन्हें प्राप्त या प्राप्त होनेवाली तरह-तरह की सुविधाओं का क्या होगा ? इसलिए स्पष्टीकरण माँगे जाने पर वे डर से मिमियाते हुए जवाब देते हैं—यानी उन्हें मिलनेवाला सुख निरन्तर आतंक की छाया में जीता है किन्तु मुक्त लोगों को किसी दल को जवाब नहीं देना होता। ये लोग अपने विवेक को जवाब देते हैं। दल का कोई व्यक्ति यदि कभी जवाब माँग ही लेता है तो उन्हें उत्तर मिलता है-‘‘तुम कौन होते हो पूछनेवाले ?’’ इसलिए दल के लोग इनसे पूछते नहीं हैं। हाँ, वे समय-समय पर अपने ही लोगों को कटघरे में खड़ा किया करते हैं और मिल-जुलकर सारी सुविधाओं और सुखों पर कुण्डली मारे रहते हैं। ऐसे सुख को लेकर क्या करना है ? लेकिन सुखों की कमी तो नहीं। दुनिया बड़ी है और यहाँ-वहाँ से छनकर हमारे पास भी सुख आया करते हैं—आते हैं तो हम सहज रूप से स्वीकार कर लेते हैं, नहीं आते हैं तो उनके न आने की कोई अनुभूति परेशान नहीं करती। अपने मन से जीते हुए, बिना डर और प्रलोभन के सहज ढंग से अपना रचना कर्म करते हुए जितना पा जाते हैं, वह बहुत लगता है, वह अपना लगता है।
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